वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों में नेतृत्व तथा प्रबंधन सीखने सिखाने पर सर्वाधिक चिंतन व शोध हो रहे हैं। प्राचीन भारतीय वाड्मय के अध्ययन से भी हमें इस सम्बन्ध में दिशा प्राप्त होती है। “श्रीमद् भगवद्गीता ” मनुष्य में विभिन्न प्रसंगों पर निराशा और हताशा आ जाने पर उनको मार्ग दिखाने वाला ग्रंथ है। इस में 18 अध्याय तथा 700 श्लोक हैं। सभी दर्शनों का समन्वय होने के साथ साथ विविध प्रकार के लोग और मनोवृतियां वाले लोग इस में हैं। भक्ति योग, कर्म योग , ज्ञान योग का वर्णन होने के साथ साथ श्रेष्ठ व्यक्ति बन कर श्रेष्ठ नेतृत्व करने संबंधी मार्गदर्शन भी इस से प्राप्त होता है।
नेतृत्व करने वाला व्यक्ति पहले स्वयं ठीक होना चाहिये। अनेक अच्छे व्यक्तियों में भी समयानुसार विचित्र कमियां दिखाई देती हैं! यह कमियां एक दिन में न आकर क्रम से आती हैं। इस क्रम को बताते हुए गीता में श्लोक आए हैं। अगर गीता का आश्रय ले कर इन कमियों के आने के क्रम को हम जान लेते हैं तो इन से बचकर एक कुशल नेतृत्वकर्ता बन सकते हैं।
ध्यायतो हर व्यक्ति जीवन पथ पर कोई न कोई ध्येय लेकर चलता है। जब तक ध्येय का चिंतन करता हुआ चलता है तब तक तो ठीक रहता है लेकिन जिस दिन ध्येय की जगह मैं आ जाता है तब उसका स्खलन प्रारंभ हो जाता है।विषयान्पुंस:…………कामात्क्रोधो भिजायते।।2.62 मैं आने के कारण किसी वस्तु या स्थान की कामना उत्पन्न होती है। उस को पूरा करने के लिये तिकड़म लगानी शुरू कर देता है। अगर किसी व्यक्ति या संगठन के कारण अवरोध आता है तो उसके प्रति क्रोध उत्पन्न होता है जिससे संतुलित चिंतन संभव नहीं हो पाता।
क्रोधोद्भवति सम्मोह:…………………………..बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। 2.63 क्रोध आने पर मूढ़ अवस्था प्राप्त होती है जिस से ठीक और गलत का ठीक से भेद नहीं कर पाता। जिस संगठन से पला-बढ़ा उसे ही गाली देने या आलोचना करने लग जाता है।ऐसे व्यवहार से व्यक्ति का पतन हो जाता है। यह पतन का पहला मनोवैज्ञानिक क्रम है। इस पर ध्यान नहीं देने से बाकी दोष भी धीरे-धीरे आ जाते हैं। इस लिये सतत आत्म चिंतन करते हुए अपने में अहंकार भाव न आये इस की निरंतर चिंता करनी चाहिए।
व्यवतमुवाच हृषीकेश: …………वच:।।2.10जब अर्जुन ने हताश हो कर धनुष बाण रख दिये तो नारायण ने हँसते-हँसते अर्जुन से कहा क्यूंकि वह जानते थे कि नाराज होने से वह लेट ही जाएगा। उसको खड़ा करने के लिये उसे उत्साह दिलाना ही होगा। इस लिये उन्होने कहा कि हे अर्जुन तूं तो पुरुषार्थी है, महापराक्रमी है, तू सब कुछ कर सकता है।इस प्रकार नेतृत्च का स्वभाव मूढ़ मनः स्थिति में संबल दे कर अवसाद की स्थिति से बाहर लाने का होना चाहिए।प. पू. सर संघचालक मोहन भागवत जी के शब्दों में “परिस्थिति कैसी भी हो, भागो नहीं खड़े रहो डट कर ।” देवान्भावय्तानेन ते
देवाभावयन्तुव:………।।3.11 नेतृत्व की दृष्टि से गीता बताती है कि नेतृत्व करना है तो समूह बना कर कार्य करना होगा। तुम दूसरों की चिंता करो और वह तुम्हारी चिंता करें तब परस्पर सामंजस्य से ही सफलता प्राप्त होगी।हमें स्मरण रहना चाहिये की हम में से कोई भी पूर्ण नहीं है परंतु अनेक विशेषताओं के लोग मिल कर पूर्णता प्राप्त कर के पूर्ण लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।
यद्यदाचरति………….लोक स्तद नुवतृते।।3.21 अपने कार्य क्षेत्र में कार्यकर्ताओं की टीम के साथ परस्पर सहयोग करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं।नेतृत्वकर्ता का ऐसा व्यवहार होने से कार्यकर्ता भी इसी ढंग के बनेंगे।अगर स्वकेंद्रित रहेंगे तो कार्यकर्ता भी ऐसे ही विकसित होंगे।श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं अन्य लोग भी उसी का अनुसरण करते हैं।इस लिये नेतृत्च निःस्वार्थ होना चाहिये।यह कहना आसान है कि ” तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहे न रहें।” लेकिन कई बार किसी का स्थानांतरण एक जगह से दूसरी जगह होते ही व्यक्ति का मन खराब हो जाता है। इस प्रकार का द्वंद प्रायः मानव जीवन में रहती है।इसीलिये नारायण कहते हैं कि जैसा मैं करूंगा वैसा ही लोग सीखेंगे। मेरे बारे में निर्णय होने पर मैं जैसा व्यवहार करूंगा वैसा ही व्यवहार मेरे सहयोगी तब करेंगे जब निर्णय मेरे हाथ में होगा।नेतृत्च कर्ता का एक काम अपने सहयोगियों का विकास करना भी है
न बुद्धि भेद…….. समाचरन् ।।3.26 सहयोगी की क्षमता को समझते हुए उसे आगे बढ़ाओ। तभी हम अधिकाधिक
कार्यकर्ताओं का विकास करके अपने कार्य में उनका उपयोग कर पाएंगे। नेतृत्चकर्ता को अपने ज्ञान का विकास स्तत करना चाहिये क्यूंकि उसकी कोई सीमा नहीं है।
यस्य……….. बुधा:।। 4.19 गीता में भगवान कहते हैं कि ज्ञान की अग्नि आपकी सब न्यूनताओं को भस्म कर देगी।
किसी अनुभवी कार्यकर्ता को बड़ा दायित्त्व मिलने पर उसे पूर्णता का आभास होने लग जाता है। चर्चा के दौरान किसी व्यक्ति द्वारा उस से सहमत नहीं होने पर तुरंत कह देता है तुम्हे क्या पता है? मैं इतने वर्षों से काम कर रहा हूँ, मैं सब कुछ जानता हूँ।यह अहंकार तब आता है तो उसके सीखने की क्षमता कम हो जाती है।हमें लक्ष्य के बारे में संशय रहित हो कर हृदय के अंदर की धारणाओं को दृढ़ कर मन में पक्का बैठा लेना चाहिये।समूह को ले कर चलते हुए हमारा व्यवहार संवेदनशील व समदर्शी रहना चाहिये। जो कार्यकर्ता हमारे साथ काम करते हैं उसका धीरे-धीरे विकास भी होना चाहिये। नेतृत्व की ऐसी दृष्टि होनी चाहिये जो अलग अलग बिखरे फूल हैं उन्हे गूंथ कर मैने माला बना ली है।नेतृत्व करते समय जो काम हमें दिया गया है उसके साथ साथ जो काम संगठन के लिये आवश्यक हो उसको करने की मनोवृति भी होनी चाहिये।ऊपर से लेकर नीचे तक अपनी परिधि के अंदर जो कार्यकर्ता काम करते हैं उनकी चिंता करनी चाहिये।साथी कार्यकर्ताओं से आत्मीय संबंध होने चाहिये क्यूंकि जब व्यक्ति के अंतर्मन को कोई बात जँच जाती है तभी मनुष्य उस काम करने के लिये दिन रात एक कर देता है। नेतृत्व देखे या न देखें वह यह कार्य करेगा ही।
जिस जगह पर हम हैं हमारे ऊपर भी नेतृत्च है और कहीं हमारे नीचे भी कार्यकर्ता हैं जिन का नेतृत्च हम करते हैं।यदि किसी कार्यकर्ता को कोई कठिनाई है तो उसे अपने वरिष्ठ कार्यकर्ता को बताना चाहिये और फिर भी कुछ न होने पर ठंडे बस्ते में डाल देना चाहिये। समय आने पर जब बस्ता खुलेगा तो समस्या का समाधान भी निश्चित ही होगा।इतना करने पर मन शांत हो जाएगा और जिस लक्ष्य को ले कर हम चले हैं उस तरफ ध्येय निष्ठ हो कर चल पाएंगे।विजय प्राप्त करने के लिये विजयशालिनी टोली बनानी आवश्यक है जिसके द्वारा गलत को ठीक कर के, ठीक का संरक्षण व संवर्धन करके ऐसी व्यवस्थाओं की स्थापना संभव हो सकती है जिससे हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
यह टोली के सम्बन्ध में गीता हमारा मार्गदर्शन करती है।
यत्र……… नीतीर्मतिर्मम ।।18.78 अर्थात जहाँ पर विचार देने वाला, दिशा देने वाला योगेश्वर कृष्ण हैं तथा जहाँ क्रियान्वन करने वाला ऐसा धनुर्धर पार्थ है तब श्री व विजय निश्चित रूप से प्राप्त होती है। इस तरह विचारात्मक और क्रियात्मक दोनो तरह की शक्तियों के मिलने से ही लक्ष्य को भेदा जा सकता है।भारत माता को परम वैभव पर पहुंचाने के कर्म यज्ञ में अपनी आहुति डाल रहे सभी साधकों को संगठन में कार्यकर्ता के साथ नेतृत्व की भूमिका भी करनी पड़ती है। भगवद् गीता से हमें अपनी मानसिकता का विकास इस दृष्टि से करने हेतु निरंतर चिंतन करते रहना चाहिये।
सुखदेव वशिष्ठ एक लेखक चिंतक और विचारक हैं।
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