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ख़ाकी

"Anukul", Anupam Kulshrestha
“अनुकूल”, अनुपम कुलश्रेष्ठ

खाक से छन कर बनी हूं ख़ाकी
तराश तराश कर चौड़ी छाती।।

है मुझमें जोश और तूफान भरा
निडर तत्पर और मन कड़ा।।

संवेदना हैं मुझमें अनोखी
निष्ठा वा सम्मान से विभूषित वर्दी।।

अंगारों से लड़ना सीखा है
मैंने शान्ति कायम करना सीखा है।।

आंतरिक सुरक्षा का स्तम्भ हूं मैं
नक्सलवाद , आतंकवाद से लड़ना है हमें।।

तीज त्यौहार तुम्हारे सारे
मेरा तोह चेतन तन मन ड्यूटी पर प्यारे।।

कहीं विस्फोट कहीं आगजनी
कहीं हत्या कहीं डकैती।।

बीती रात भी़ सोया नहीं
कल का मुझको पता नहीं।।

शायद वारदात की घटनास्थल पर जाऊं
या शमशान पर अपने शहीद साथी का सम्मान बढ़ाऊं।।

विरक्ति सी रखनी होती हैं खुद में।
परिवारों का दायित्व भी पूरा करना होता है उसी क्रम में।।

दंगाइयों पर लाठी चलानी पड़े
वही मेला में लोगों को छूना ना पड़े।।

बहुरूपिया है ख़ाकी
हर मौसम की हरकत है निराली।।

जिन्दा हूं तुम्हारे लिए
प्रतिज्ञा ली है देश के लिए प्रिय।।

तुम्हारी रक्षा पर अडिग हूं मैं
नहीं भय वीरगति को भी़ जाने में।

“अनुकूल” अनुपम कुलश्रेष्ठ, भारतीय पुलिस सेवा की एक वरिष्ठ अधिकारी हैं।

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