किसान अपनी मांगों को ले कर संघर्ष करें, आंदोलन करें तथा सरकार पर दबाब बनाएं, सरकार उनकी उचित मांगों को स्वीकार करे, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारा तो यह कहना है कि आखिर किसान को सड़कों पर उतरना ही क्यों पड़ा? स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी किसान कर्जे के बोझ के तले जिंदगी बसर करने को क्यों मजबूर है? सोना उगलने वाली हमारी पंजाब की धरती जिसे हम ‘माता धरत महत’ कहते आये हैं, बंजर कैसे हो गयी? किसानों की इस बदहाली के लिए क्या मोदी जिम्मेवार है? रोचक बात है कि हमारे भोले किसान को उनकी यह दुर्दशा करने वाली कांग्रेस, अकाली और अब आप तथा आढ़ती आज मसीह लगने लगे पड़े हैं। जिस आढ़ती को किसान अपनी जान का दुश्मन मानते थे आज वही आढ़ती उन्हें अपना तारणहार लगने लगा है। आज जब विषय प्रारम्भ हो ही गया है तो इन प्रश्नों पर भी तो विचार होना ही चाहिए। वर्तमान एमएसपी या मार्केटिंग कमेटी की व्यवस्था में अगर दम होता किसान की यह बुरी हालत क्यों होती? किसान को मार्किट में फसल बेचती बार फसल की क्वालिटी के नाम पर आढ़ती और एससीआई में कितने शोषण का शिकार होना पड़ता है कौन नहीं जानता? ऐसे में किसान की स्थिति को ठीक करने के उद्देश्य से अगर सरकार कोई प्रयास करती है उसे अवसर क्यों नहीं देना चाहिए? आंदोलन करने में कुछ गलत नहीं है लेकिन आंदोलन में जब गाली गोली की बात हो, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की कोशिश हो, समाज को तोड़ने व परस्पर द्वेष फैलाने की बातें हों तो चिंता होना स्वाभाविक ही है। पंजाब में गत एक मास से भी ज्यादा समय से चल रहा किसान आंदोलन यद्यपि अधिकांशतः शांत एवं अनुशासित ही रहा है तो भी इस आंदोलन में बड़े वर्ग ने जैसा गैर जिम्मेदार व्यवहार किया है उससे सामान्य व्यक्ति से लेकर सरकार व सुरक्षा एजेंसियों को चिंतित व परेशान कर दिया है। किसान आंदोलन के घटनाक्रम को ध्यान से देखने वाले इसे माओवादी व खालिस्तानी तत्वों का षड्यंत्र मानते हैं। पंजाब में माओवादी तत्वों ने किसान आंदोलन के बहाने अपने मजबूत नेटवर्क एवं समाज विरोधी विध्वंसक इरादों से एक बार फिर पंजाब को सुलगाने का प्रयास किया है। इस आंदोलन में किसान के कंधे पर बंदूक रख कर माओवादी व खालिस्तानी तत्व खुल कर खेले हैं। किसानों के आक्रोश को इन लोगों ने कुशलता से अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में उपयोग कर लिया है। यह आंदोलन रातों रात कैसे इतना बड़ा हो गया? पंजाब के गांवों-गांवों से आन्दोलन के लिए संसाधन व राशन कैसे एकत्र होने लग पड़ा? अचानक विदेश से पैसे बरसने कैसे शुरू हो गए? ये सब प्रश्न समाज के साथ साथ सरकार व सुरक्षा एजेंसियों की नींद खराब करने के लिए पर्याप्त है। किसान का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना गलत नहीं है। सरकार को किसानों की उचित मांगे माननी चाहिए। लेकिन मोदी, अम्बानी, अडानी को मर्यादाहीन गलियों की बौछार, समाज मे हिंसा फैलाना, परस्पर द्वेष उत्पन्न करने की भाषा, टेलीफोन के टॉवर एवं अन्य सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाना, क्या संकेत करता है? किसान एवं उनके नेतृत्व को माओवादियों व खालिस्तानी तत्वों के मंसूबों को समझना होगा। सरकार से तार्किक चर्चा न कर कृषि बिलों को खत्म करने की जिद्द क्या सही है? इस पर भी अंहकारी और जिद्दी सरकार को प्रचारित करना कहाँ तक उचित है?
*निर्दोषों के रक्त से रंगे हैं माओवादी हाथ*-
अच्छे उद्देश्य से प्रारम्भ हुआ कार्य या आंदोलन भी कितना भयंकर परिणाम देने वाला हो सकता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण नक्सलवाद है। गरीबों की गरीबी की पीड़ा दूर करने के भले उद्देश्य से प्रारम्भ यह आंदोलन आज गरीबों के प्राण ही लेने पर तुल गया है। माओवाद के पीछे प्रेरणा चीन से होनेकिसान अपनी मांगों को ले कर संघर्ष करें, आंदोलन करें तथा सरकार पर दबाब बनाएं, सरकार उनकी उचित मांगों को स्वीकार करे, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारा तो यह कहना है कि आखिर किसान को सड़कों पर उतरना ही क्यों पड़ा? स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी किसान कर्जे के बोझ के तले जिंदगी बसर करने को क्यों मजबूर है? सोना उगलने वाली हमारी पंजाब की धरती जिसे हम ‘माता धरत महत’ कहते आये हैं, बंजर कैसे हो गयी? किसानों की इस बदहाली के लिए क्या मोदी जिम्मेवार है? रोचक बात है कि हमारे भोले किसान को उनकी यह दुर्दशा करने वाली कांग्रेस, अकाली और अब आप तथा आढ़ती आज मसीह लगने लगे पड़े हैं। जिस आढ़ती को किसान अपनी जान का दुश्मन मानते थे आज वही आढ़ती उन्हें अपना तारणहार लगने लगा है। आज जब विषय प्रारम्भ हो ही गया है तो इन प्रश्नों पर भी तो विचार होना ही चाहिए। वर्तमान एमएसपी या मार्केटिंग कमेटी की व्यवस्था में अगर दम होता किसान की यह बुरी हालत क्यों होती? किसान को मार्किट में फसल बेचती बार फसल की क्वालिटी के नाम पर आढ़ती और एससीआई में कितने शोषण का शिकार होना पड़ता है कौन नहीं जानता? ऐसे में किसान की स्थिति को ठीक करने के उद्देश्य से अगर सरकार कोई प्रयास करती है उसे अवसर क्यों नहीं देना चाहिए? आंदोलन करने में कुछ गलत नहीं है लेकिन आंदोलन में जब गाली गोली की बात हो, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की कोशिश हो, समाज को तोड़ने व परस्पर द्वेष फैलाने की बातें हों तो चिंता होना स्वाभाविक ही है। पंजाब में गत एक मास से भी ज्यादा समय से चल रहा किसान आंदोलन यद्यपि अधिकांशतः शांत एवं अनुशासित ही रहा है तो भी इस आंदोलन में बड़े वर्ग ने जैसा गैर जिम्मेदार व्यवहार किया है उससे सामान्य व्यक्ति से लेकर सरकार व सुरक्षा एजेंसियों को चिंतित व परेशान कर दिया है। किसान आंदोलन के घटनाक्रम को ध्यान से देखने वाले इसे माओवादी व खालिस्तानी तत्वों का षड्यंत्र मानते हैं। पंजाब में माओवादी तत्वों ने किसान आंदोलन के बहाने अपने मजबूत नेटवर्क एवं समाज विरोधी विध्वंसक इरादों से एक बार फिर पंजाब को सुलगाने का प्रयास किया है। इस आंदोलन में किसान के कंधे पर बंदूक रख कर माओवादी व खालिस्तानी तत्व खुल कर खेले हैं। किसानों के आक्रोश को इन लोगों ने कुशलता से अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में उपयोग कर लिया है। यह आंदोलन रातों रात कैसे इतना बड़ा हो गया? पंजाब के गांवों-गांवों से आन्दोलन के लिए संसाधन व राशन कैसे एकत्र होने लग पड़ा? अचानक विदेश से पैसे बरसने कैसे शुरू हो गए? ये सब प्रश्न समाज के साथ साथ सरकार व सुरक्षा एजेंसियों की नींद खराब करने के लिए पर्याप्त है। किसान का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना गलत नहीं है। सरकार को किसानों की उचित मांगे माननी चाहिए। लेकिन मोदी, अम्बानी, अडानी को मर्यादाहीन गलियों की बौछार, समाज मे हिंसा फैलाना, परस्पर द्वेष उत्पन्न करने की भाषा, टेलीफोन के टॉवर एवं अन्य सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाना, क्या संकेत करता है? किसान एवं उनके नेतृत्व को माओवादियों व खालिस्तानी तत्वों के मंसूबों को समझना होगा। सरकार से तार्किक चर्चा न कर कृषि बिलों को खत्म करने की जिद्द क्या सही है? इस पर भी अंहकारी और जिद्दी सरकार को प्रचारित करना कहाँ तक उचित है?
*निर्दोषों के रक्त से रंगे हैं माओवादी हाथ*-
अच्छे उद्देश्य से प्रारम्भ हुआ कार्य या आंदोलन भी कितना भयंकर परिणाम देने वाला हो सकता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण नक्सलवाद है। गरीबों की गरीबी की पीड़ा दूर करने के भले उद्देश्य से प्रारम्भ यह आंदोलन आज गरीबों के प्राण ही लेने पर तुल गया है। माओवाद के पीछे प्रेरणा चीन से होने के कारण *’हुए तुम दोस्त जिनके दुश्मन की जरूरत क्या’* जैसी हो गई है? गरीबों, शोषितों व पीड़ितों के आंसू पोंछने, उन्हें न्याय दिलाने के लिए हाथ मे शस्त्र उठाने से प्रारम्भ माओवादी नक्सलियों का यह आंदोलन आज स्वयं गरीबों, वनवासियों, शोषितों, पीड़ितों, सामान्य नागरिकों के लिए भस्मासुर बन चुका है। अब तक लाखों निर्दोष लोग व शस्त्रबलों के सैनिक इस आंदोलन की भेंट चढ़ चुके हैं। गरीबों के हित चिंतक कहलाते ये लोग उनकी ही जान के दुश्मन बन गए हैं। माओवादियों की गरीबों के प्रति हमदर्दी समझाने के लिए संघ के वरिष्ठ प्रचारक स्व. सुरेश राव केतकर जी एक छोटी कहानी सुनाते थे जो कि अत्यंत प्रासंगिक है। एक बार एक बत्तख व हाथी की दोस्ती हो गई। दोनों एक दूसरे के साथ अपना सुख दुःख सांझा करते थे। समय के चक्र में बत्तख अंडा देकर बीमार पड़ी और कुछ समय बाद चल बसी। बत्तख के जाने से हाथी बहुत दुःखी था। बत्तख के प्रति अपने स्नेह के कारण उसके परिवार की जिम्मेवारी खुद की महसूस करने लगा और अंडे की देखभाल करने लगा। उसने आसपास पता किया कि बत्तख अंडे से बच्चे को कैसे निकालती थी। हाथी को पता चला कि बत्तख अंडे पर बैठ कर उसे सेक देती है और समय आने पर अंडे से बच्चा बाहर आ जाता है। हाथी ने भी बत्तख के परिवार के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझते हुए उसके कार्य को पूरा करने के लिए स्वयं ही अंडे पर बैठ गया। के कारण *’हुए तुम दोस्त जिनके दुश्मन की जरूरत क्या’* जैसी हो गई है? गरीबों, शोषितों व पीड़ितों के आंसू पोंछने, उन्हें न्याय दिलाने के लिए हाथ मे शस्त्र उठाने से प्रारम्भ माओवादी नक्सलियों का यह आंदोलन आज स्वयं गरीबों, वनवासियों, शोषितों, पीड़ितों, सामान्य नागरिकों के लिए भस्मासुर बन चुका है। अब तक लाखों निर्दोष लोग व शस्त्रबलों के सैनिक इस आंदोलन की भेंट चढ़ चुके हैं। गरीबों के हित चिंतक कहलाते ये लोग उनकी ही जान के दुश्मन बन गए हैं। माओवादियों की गरीबों के प्रति हमदर्दी समझाने के लिए संघ के वरिष्ठ प्रचारक स्व. सुरेश राव केतकर जी एक छोटी कहानी सुनाते थे जो कि अत्यंत प्रासंगिक है। एक बार एक बत्तख व हाथी की दोस्ती हो गई। दोनों एक दूसरे के साथ अपना सुख दुःख सांझा करते थे। समय के चक्र में बत्तख अंडा देकर बीमार पड़ी और कुछ समय बाद चल बसी। बत्तख के जाने से हाथी बहुत दुःखी था। बत्तख के प्रति अपने स्नेह के कारण उसके परिवार की जिम्मेवारी खुद की महसूस करने लगा और अंडे की देखभाल करने लगा। उसने आसपास पता किया कि बत्तख अंडे से बच्चे को कैसे निकालती थी। हाथी को पता चला कि बत्तख अंडे पर बैठ कर उसे सेक देती है और समय आने पर अंडे से बच्चा बाहर आ जाता है। हाथी ने भी बत्तख के परिवार के प्रति अपनी जिम्मेवारी समझते हुए उसके कार्य को पूरा करने के लिए स्वयं ही अंडे पर बैठ गया। आगे क्या हुआ होगा, इसकी कल्पना कर सकते हैं। नक्सलवादी भी हाथी की तरह गरीबों के प्रति अपना दायित्व हिंसा के द्वारा कानून हाथ मे लेकर पूरा करने का प्रयास करते हैं।
*माओवादी आतंकवाद का उदय*-
माओवादी आतंकवाद 1960-70 के दशक के दौरान चरमपंथी अतिवादी माने जा रहे बुद्धिजीवी वर्ग का या उत्तेजित जनसमूह की प्रतिक्रियावादी सिद्धांत है। बंगाल के नक्सलवाड़ी जिले में चारू मजूमदार व कन्नू सान्याल द्वारा शस्त्र क्रांति के नाम पर निर्दोष लोगों का नरसंहार कर दिया। माओवादी राजनैतिक रूप से सचेत सक्रिय और योजनाबद्ध काम करने वाले दल के रूप में काम करते है। राजनैतिक दलों में यह प्रमुख भेद है कि जहाँ मुख्य धारा के दल वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही काम करना चाहते है वही माओवादी समूचे तंत्र को हिंसक तरीके से उखाड़ के अपनी विचारधारा के अनुरूप नयी व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं। माओवादी आतंकी चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक माओ के इन दो प्रसिद्द सूत्रों पे काम करते हैं : राजनैतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है। तथा राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति। उल्लेखनीय है कि कन्नू सान्याल जैसे बड़ी संख्या में ईमानदार माओवादी नेता आंदोलन को गलत रास्ते पर जाते देख स्वयं को आंदोलन से अलग कर चुके हैं। कन्नू सान्याल ने तो निराश होकर आत्महत्या कर ली थी।
*भारत में माओवाद कारण* –
भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रूप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब विभेद हुये तो एक धड़ा भाकपा मार्क्सवादी के रूप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में. इनसे भी अलग हो कर एक धड़ा सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चलते हुये पड़ोसी देश चीन के माओवादी सिद्धांत में चलने लगा। विकास की बड़ी बड़ी योजनाएँ आज अनेक लोगों को विस्थापित कर रही हैं। अतीत में बड़े बाँध और आज SEZ सेज (स्पेशल आर्थिक जोन) बन गए हैं। विस्थापितों के पुनर्वास की योजना सफल नहीं होती है। इससे जनता में रोष बढ़ता जाता है। इसी रोष को लक्षित कर माओवादी पार्टी पीड़ितों को संगठित कर उन्हें समाज व सरकार के विरुद्ध खड़ा करती है। स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी बनी हुई आर्थिक विषमता भी माओवाद के प्रसार के लिए काफी सीमा तक जिम्मेदार है। यधपि पिछले 30 सालों में निर्धनता उन्मूलन के प्रयासों को भारी सफलता मिली है। यह भी ध्यान में आता है कि आर्थिक विकास की ये योजनाएँ भ्रष्टाचार और अपारदर्शिता का गढ़ रही हैं। निर्धनता उन्मूलन के आंकड़े बहुत भरोसे के लायक नहीं माने जाते हैं। आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी निर्धनता के शिकंजे में अपने अरमान व स्वप्न खो रहा है। बड़ी संख्या में लोग निर्धनता के चक्र में पिसते रहते जा है । जबकि अमीर उनकी आँखों के सामने और अमीर बनते जा रहे है।
*वर्तमान विकास का मॉडल भी बदलना होगा*-
अभावग्रस्त तथा वंचित वर्ग की पीड़ा और कष्ट दूर करना भारत में अनेकों लोगों के जीवन का जीवन का लक्ष्य रहा है। *बिभुक्षितं किम न करोति पापं* या *’भूखे भजन न होय गोपाला’* जैसी बातें हमारे शास्त्र व दर्शन मे कई बार अनेक ढंग से कही गई हैं। हमारे यहां ऐसी बातें केवल कही ही नहीं गई बल्कि गरीबों की पीड़ा को कम करने के लिए दधीचि, रन्तिदेव व गुरू तेग बहादुर जैसे अनगिनित उदाहरण हमारे समाज में हैं। दुनिया का वर्तमान आर्थिक विकास का मॉडल भी लोगों को ठगता सा लगता है। विचित्र है कि देश मे झुग्गी-झोंपड़ी और बड़े-बड़े भवन साथ-साथ बढ़ रहे हैं। सब जगह महल झोपड़ी को चिढ़ाते देखे जा सकते हैं। प्रतिवर्ष झुग्गी झोंपड़ी तथा गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करने वालों की संख्या बढ़ती जाती है। यद्यपि देश में प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी है, सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा का भंडार भी हमारे पास है। मेट्रो के बाद बुलेट ट्रेन के लिए प्रयास चल रहे हैं। चंद्रमा के बाद मंगल पर जाने की देश तैयारी कर रहा है। इतना सब होने के बाद भी यह भी एक कड़वा सत्य है कि आज भी करोड़ों लोग घर विहीन हैं, करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं, कुपोषित हैं। शिक्षा, चिकित्सा, व न्याय करोड़ों देशवासियों की पहुंच से दूर हैं। देश में बहुत जगह सामाजिक व आर्थिक शोषण चरमसीमा पर है। यह परिस्थिति नक्सलवाद के लिए अत्यंत अनुकूल है। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जनजाति और जाति के लोग भारत में लंबे समय तक हाशिये पे धकेले हुए रहे हैं। मानव भले ही स्वभाव से सामाजिक प्राणी रहा हो जो हिंसा नहीं करता लेकिन जब एक बड़े वर्ग को समाज किसी कारण से हाशिये पे धकेल देता हैं और पीढी दर पीढी उनका दमन चलता रहता है, यह भी किसी हिंसा से कम नहीं और प्रति हिंसा के लिए माओवादियों के हाथों आसानी से खेल जाता है।
*पंजाब में बढ़ता नक्सलवाद चिंताजनक* –
वैसे तो पंजाब में स्वतंत्रता से भी पहले अंग्रेजों के विरुद्ध गद्दर आंदोलन सम्यवादियों से प्रभावित व संचालित रहा है। राजनीति में एक समय सीपीआई व सीपीएम कुल15 तक एमएलए जिताने में सफल रहे हैं। अमृतसर में सतपाल डांग व विमल डांग दम्पति पंजाब की राजनीति के धुरंधर व शिखर रहे हैं। मालवा में तो इन लोगों ने समाज जीवन पर अच्छी पकड़ बना ली है। राजनीति के अलावा नक्सली मजदूर व शिक्षा के क्षेत्र में अपनी जड़ें जमा चूक हैं। कई प्रतिष्ठित कॉलेजों व यूनिवर्सिटीज के छात्रों को इस आंदोलन से जोड़ने में सफल भी हुए हैं। बड़ी संख्या में छात्रों और शिक्षकों समेत शहरी बौद्धिक और मध्यम वर्ग के बीच कुछ सहानुभूति और समर्थन प्राप्त कर लिया है। पंजाब में नक्सली व खालिस्तानी गठजोड़ राष्ट्रीय एकता, सुरक्षा के साथ साथ सामाजिक ताने बाने को भी हिलाने का प्रयास करता रहता है। वर्तमान किसान आंदोलन भी इसी नक्सलवाद व खालिस्तानी गठजोड़ का परिणाम। राजनीति में शीघ्र सफलता की कोई संभावना न देख कर कम्युनिष्टों ने सीपीआई व सीपीएम के कार्यकर्ता व नेता षड्यंत्रपूर्वक कांग्रेस, आप व अकाली दल में शामिल होकर अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।
*समाधान की ओर बढ़ें कदम-*
समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि साम्यवाद की तरह पूंजीवाद भी खतरनाक है। हिन्दू आर्थिक चिंतन व सामाजिक व्यवस्था ही समाधान है। नक्सलवाद की तरह पूंजीवाद भी खतरनाक है । नक्सलियों की अराजकता सबको नज़र आती है। पूंजीपतियों का शोषण सबको समझ नहीं आता है। देश की एकता, अखंडता व सुरक्षा के लिए माओवाद और पूंजीवाद दोनों ही महासंकट हैं । राष्ट्र को इस महासंकट से बाहर निकालने के लिए समझना होगा कि भारतीय चिंतन व दर्शन ही नक्सलवाद एवं पूंजीवाद का सही उत्तर दे पाएगा । समाज सरकार या बाजार से नहीं सुखी होता है। समाज तो परिवार व्यवस्था से सुखी होता है। सबने एक साथ सुखपूर्वक रहना हैं इसलिए
- सबको (किसान मजदूर दलित युवा महिला को भी) अपने श्रम का पूरा मूल्य मिले ।
- कृषि, उद्योग, खनन, यातायात इत्यादि से पर्यावरण एवं स्वास्थ्य को क्षति न हो ।
- किसी को भी अराजकता, मुनाफाखोरी एवं असीमित संग्रह की अनुमति न हो ।
इस प्रकार के संस्कार एवं व्यवस्था अपने भारतीय परिवारवाद से सुनिश्चित करने हैं।
देश की एकता अखंडता व सुरक्षा के लिए हम स्वयंसेवकों की जिम्मेदारी है कि हम राजनीति में माओवादियों और पूंजीपतियों को हावी न होने दें ।
*समाधान* की दिशा में कुछ सुझाव परिणामकारी हो सकते हैं।
- आर्थिक व सामाजिक असमानता दूर करने के लिए तेज हों प्रयास
- समाज मे विभेद उत्पन्न करने में लगे नेताओं/एक्टिविस्टों पर नजर
- बिखण्डनकारी साहित्य पर नजर
- शोध केंद्र स्थापित कर लम्बा कार्य करने की सिद्धता
- जोड़ने वाली कड़ियों को स्थापित करना
- सामाजिक नेतृत्व खड़ा करना होगा। लेखक, गायक आदि सामाजिक नेतृत्व विकसित करना होगा।
- पाकिस्तानी एजेंसियों के इरादों को विफल करना होगा।
- समाधान सरकार व पूंजीपतियों के पास नहीं समाज को ही खड़ा करना होगा। संघ कार्य व गतिविधियों के कार्य को गति देनी होगी।
- आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग झुग्गी झोंपड़ी व सीमावर्ती इलाकों में विद्यालय व संस्कार केंद्र बड़ी संख्या में प्रारम्भ करने होंगे।
- सामाजिक समररस्ता, धर्म जागरण व परिवार प्रबोद्धन की गतिविधियों को गति देना
- विद्यार्थी विशेषकर यूनिवर्सिटी, मजदूर व किसान वर्ग में अपना कार्य तेजी से ले जाना होगा।
*लेखक विद्या भारती के उत्तर क्षेत्र के संगठन मंत्री हैं।*
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