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पंजाब में बढ़ते माओवादी आतंकवाद को समय रहते रोकना होगा

  किसान अपनी मांगों को ले कर संघर्ष करें, आंदोलन करें तथा सरकार पर दबाब बनाएं,  सरकार उनकी उचित मांगों को स्वीकार करे,  इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारा तो यह कहना है कि आखिर किसान को…

कोविड-19 वैक्सीन : क्या, कहां, किसे, कब और कैसे ?

कोविड-19 वैक्सिन आज भारत ही नहीं अपितु विश्व भर में घर घर में एक चर्चा का विषय बना हुआ है। लक्ष्य को लेकर कई प्रकार की भ्रांतियां और अफवाहें भी फैलाई जा रही हैं। विश्व पटल पर यदि देखा जाए…

दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रवेश प्रक्रिया, नई पीढ़ी के भविष्य से खिलवाड

दिल्ली विश्वविद्यालय, यानी डीयू में पढ़ना हर विद्यार्थी का सपना होता है। परंतु दिल्ली विश्वविद्यालय ने कुछ ऐसे नियम बना डाले हैं, जिससे योग्यता होने पर भी मनमुताबिक कॉलेजों में एडमिशन पाना विद्यार्थियों की मेधा नहीं, बल्कि उनके भाग्य का…

कृषि सुधार बिल : नए और आत्मनिर्भर भारत की नींव

Sukhdev Vashist, 4th Estate News
सुखदेव वशिष्ठ

संसद में ऐतिहासिक कृषि सुधार विधेयकों का पारित होना देश के किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण है। यह विधेयक सही मायने में किसानों को बिचौलियों और तमाम अवरोधों से मुक्त करेंगे।किसान ही हैं जो ख़रीद खुदरा में और अपने उत्पाद की बिक्री थोक के भाव करते हैं।नए कृषि अध्यादेशों को लेकर देश के किसान संगठन लगातार आवाज उठा रहे हैं। भारतीय किसान महासंघ का कहना है कि नए कृषि अध्यादेशों से किसानों का शोषण बढ़ेगा। उनका मानना है कि तीनों अध्यादेश किसानों के अस्तित्व के लिए खतरा हैं क्योंकि सरकार इनके माध्यम से आने वाले समय में किसानों की फसलों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर बन्द करने की तैयारी कर रही है।

भारत का कृषि क्षेत्र विरोधाभासों से भरा पड़ा है।हम दुनिया में दूध, तिलहन, दलहन, कपास, आम, पपीते और केले के सबसे बड़े उत्पादक देश हैं। इतना ही नहीं, भारत दुनिया भर में चावल, चीनी, चाय, सब्जियों और मछलियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है।भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के गोदामों में फिलहाल चावल और गेहूं का इतना पर्याप्त सुरक्षित भंडार है कि राशन के अनाज के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर हरेक भारतीय परिवार को अगले दो सालों तक खिलाया जा सकता है। लेकिन विरोधी तथ्य भी कमतर नहीं है। कृषि का जीडीपी में महज 17 फीसद हिस्सा है, लेकिन यह देश के 56 फीसद कार्यबल को रोजगार देता है। जोत को टुकड़ों में बांटना बीते दो दशक में और बदतर हुआ है और 87 फीसद किसान अब औसतन मात्र 2 हेक्टेयर तक कृषि भूमि के मालिक हैं। वास्तविक मूल्यों के लिहाज से किसानों की कृषि से होने वाली निजी आमदनी बीते एक दशक से ठहरी हुई है और 52.5 फीसद भारतीय किसान परिवार कर्ज में डूबे हैं।

ग्रामीण वित्तीय समावेशन पर नाबार्ड की 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रति खेतिहर परिवार पर औसत बकाया कर्ज 1.04 लाख रुपए आंका गया है, जो उनके शहरी समकक्षों के मुकाबले 36 फीसद अधिक है। आजादी के बाद पहले दो दशकों में भारत खाद्य सहायता मांगने के लिए अमीर देशों के पास जाता था। 1960 के दशक के आखिरी सालों में हरित क्रांति ने देश को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया। फिर भी, नीति आयोग के सदस्य और शीर्ष कृषि विशेषज्ञ डॉ. रमेश के अनुसार, 21वीं सदी के दो दशक बीतने के बाद भी हमारे किसान 20वीं सदी के कृषि ढांचे के तहत ही काम कर रहे हैं, जिसका खमियाजा खुद उन्हें और देश दोनों को भुगतना पड़ता है।

हमारे अन्न भंडार लबालब भरे हैं, इसके बावजूद किसान इतनी भारी मात्रा में फसलें उगाने में जुटे हैं कि उन्हें हम गोदामों में भरकर रखने की उम्मीद नहीं कर सकते। निर्यात में भारत महज 2.5 फीसद ही निर्यात करता है और ब्राजील की चौथी पायदान के मुकाबले 13वीं पायदान पर है। यह निराशाजनक हालत बड़े सुधारों की जरूरत बता रही है। 1991 के सुधारों के बाद उद्योगों ने नाटकीय बदलाव देखे और जीडीपी की धमाकेदार वृद्धि दी, वहीं किसानी जलता हुआ राजनैतिक अंगारा बनी हुई है जिसे अंगुलियां जलने के डर से सरकारों ने छूने से परहेज किया।

क्रांति के बीज कृषि सुधारों का मुश्किल काम हाथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिया। पुरानी कृषि प्रथाओं को उलटने के लिए जुलाई में वह तीन अध्यादेश लाये और फिर सितंबर में संसद के मॉनसून सत्र के दौरान इन्हे कानून बना दिया। प्रधानमंत्री ने कई मंचों पर कहा कि ”पहले केवल खाद्य उत्पादन बढ़ाना सरकार की प्राथमिकता थी। लोग किसानों की आमदनी के बारे में भूल ही गए थे। पहली बार इस सोच को बदला गया है।आज खेती और किसानों को अन्नदाता की भूमिका से निकालकर उद्यमी की भूमिका में लाने के लिए अवसरों का निर्माण किया गया है।’’ कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी ने इनकी प्रशंसा में कहा, ‘‘कृषि में सुधारों के लिए 1991 सरीखा लम्हा, एक गेमचेंजर है जिसने कृषि क्रांति की शुरुआत कर दी है।’’ यह तीनों कानून भारतीय किसानों को केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के शिकंजे से आजाद करते हैं। जिन बड़े बदलावों के जरिए वह आजाद करते हैं, वह इस प्रकार हैं:

किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन व सुविधा) अधिनियम 2020 किसानों को अपनी पैदावार भारत में कहीं भी बेचने की इजाजत देता है ताकि उन्हें बेहतर दाम मिल सके और उस चीज का सूत्रपात हो सके जिसे केंद्रीय कृषि सचिव ”एक राष्ट्र, एक बाजार’’ कहते हैं।नया कानून राज्य सरकारों को एपीएमसी इलाकों से बाहर कोई भी बाजार शुल्क, उपकर या उगाही वसूल करने से भी रोकता है।किसानों और खरीदारों दोनों को इस कदम का लाभ मिलना तय है।

मूल्य आश्वासन पर कृषक (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता तथा कृषि सेवा अधिनियम 2020 कॉर्पोरेट क्षेत्र को देश भर में ठेके पर खेती के कामों में शामिल होने की इजाजत देगा। साथ ही यह किसानों का शोषण रोकने के लिए सख्त शर्तें आयद करता है। यह कृषि जोतों के लगातार बंटते जाने की समस्या से उबरने के लिए लाया गया है।

अनिवार्य वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020 अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल और आलू को अनिवार्य वस्तुओं की सूची से हटाता है और केंद्र सरकार को केवल युद्ध, अकाल या कीमतों में तेज उछाल सरीखी गैर-मामूली परिस्थितियों में ही कुछ निश्चित खाद्य पदार्थों की आपूर्ति शृंखला को विनियमित करने की इजाजत देता है। यह निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देने के लिए लाया गया है।

इन सुधारों का बचाव करते हुए अलबत्ता इन बदलावों के कानून बनने से पहले भी प्रधानमंत्री को अप्रत्याशित हलकों से विरोध का सामना करना पड़ा । केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने विरोध में इस्तीफा दे दिया और अकाली दल बादल ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन से नाता तोड़ लिया।”कृषि कानून खेती के लिए 1991 जैसे मौके की तरह हैं । इन कानूनों ने कृषि में एक बड़े सुधार के लिए रास्ता तैयार कर दिया है’’ अशोक गुलाटी। सबसे ज्यादा अशांति पंजाब में भड़की जो हरित क्रांति में सबसे आगे रहा था। यहां कई किसानों को डर है कि नए कृषि कानूनों से उन्हें वित्तीय नुकसान होगा। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 21 अक्तूबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया और केंद्र के बनाए तीन कानूनों में से दो में राज्य के लिए खास संशोधन पारित करवा लिए।
इनमें अन्य बातों के अलावा अनाजों की बिक्री केवल एपीएमसी के माध्यम से करने को अनिवार्य बना दिया गया और खरीदारों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम दाम पर अनाज खरीदने पर रोक लगा दी गई, और उल्लंघन करने वालों के जेल की सजा तक का प्रावधान किया गया। कांग्रेस शासित राज्य छत्तीसगढ़ में भी राज्य सरकार ने विधानसभा में इसी से मिलते-जुलते संशोधन पारित किए। कांग्रेस शासित राजस्थान ने भी ऐसा ही करने के इरादे का ऐलान किया। इस बीच, किसानों के कुछ बड़े संगठनों और समर्थकों ने इन सुधारों के खिलाफ देश भर में आंदोलन छेडऩे का फैसला किया।
कई विशेषज्ञ इन तीन कानूनों को कृषि क्रांति की लंबी राह में पहला बड़ा कदम मानते हैं। कृषि सुधारों का सूत्रपात करते हुए प्रधानमंत्री एपीएसी तथा एमएसपी की व्यवस्था के समानांतर व्यापार प्रणाली लेकर आए जो खुद को निजी क्षेत्र के लिए खोलती है और कृषि उपजों के दाम बाजार के हिसाब से निर्धारित होने देती है।
केंद्र सरकार ने किसानों को कीमतों में मौसमी उतार-चढ़ावों से बचाने के लिए शुरुआत में केवल अनाजों के लिए एमएसपी की व्यवस्था भी कायम की। हालांकि बाद में एमएसपी की व्यवस्था 23 उपजों तक बढ़ा दी गई, लेकिन इसमें आज भी गेहूं और चावल का दबदबा है। सरकारी खरीद में 80 फीसद हिस्सा गेहूं और चावल है, जबकि बाकी में दलहन और तिलहन आते हैं।एमएसपी का असर कुल खेतिहर समुदाय के 6 फीसद पर पड़ता है, लेकिन पंजाब और हरियाणा में बहुसंख्यक किसान इस पर निर्भर हैं।

साल 2019-20 में कुल 10.6 करोड़ टन गेहूं उत्पादन में से 3.4 करोड़ टन राज्य सरकारों ने खरीदा जो कुल उपज का एक-तिहाई था. इस खरीद में 60 फीसद से ज्यादा हिस्सा पंजाब और हरियाणा का था. धान के मामले में, 11.7 करोड़ टन के कुल उत्पादन में से 5 करोड़ टन राज्य सरकारों ने खरीदा, जिसमें इसका पांचवां हिस्सा पंजाब के खाते में गया।
अनाज का बहुत ज्यादा उत्पादन नफे के बजाए नुक्सान देने लगा है।मसलन, इस साल जून में एफसीआइ के गोदामों में 8.6 करोड़ टन से ज्यादा अनाज भरा पड़ा था।महामारी के दौरान लाई गई नई मुफ्त अनाज वितरण योजना के लिए जरूरी अनाज बांट देने के बाद भी उसके गोदामों में अगला खरीद सीजन आने के वक्त 5 करोड़ टन अनाज अतिरिक्त होगा।एक अनुमान के मुताबिक, केंद्र अनाज की खरीद पर 2 लाख करोड़ रुपए या जीडीपी का 1 फीसद खर्च करता है।
फल और सब्जियां प्रति हेक्टेयर कहीं ज्यादा आमदनी दिलवाती हैं, फिर भी किसान अनाज ही उगाते रहते हैं क्योंकि उन्हें बाजार के उतार-चढ़ावों से नहीं गुजरना पड़ता।

यही नहीं, अनाज उगाने पर बहुत ज्यादा जोर देने से पंजाब और हरियाणा में भूमिगत जल का स्तर साल में औसतन सीधा 7 मीटर नीचे चला जाता है। जरूरत से ज्यादा उगाए गए अनाज का बड़ा हिस्सा या तो सड़ता है या बर्बाद होता है या पीडीएस प्रणाली में भेजते वक्त बड़े पैमाने पर लूट में चला जाता है।

अनाज के इस फंदे से निकलने के लिए विशेषज्ञ अब प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) की तरफ जाने की वकालत कर रहे हैं, जिसमें किसानों को ज्यादा से ज्यादा आमदनी देने वाली मनचाही फसल उगाने के लिए हर सीजन में एकमुश्त प्रोत्साहन राशि दी जाती है।इससे बिजली और उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी धीरे-धीरे घटती जाएगी और सरकारी खरीद में भी अच्छी-खासी कमी आएगी। मसलन, हरियाणा में किसानों को गेहूं या धान नहीं उगाने और अन्य फसलें अपनाने के लिए प्रोत्साहन राशि के तौर पर हर सीजन प्रति एकड़ 7,000 रुपए दिए जा रहे हैं. इसके नतीजे भी दिखाई देने लगे हैं।
बिहार ने 2006 में साहसिक निर्णय लिया, जब मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल में नीतीश कुमार ने बिचौलियों के हाथों किसानों का उत्पीडऩ समाप्त करने और बुनियादी ढांचे में निजी निवेश के लिए रास्ता बनाने की खातिर एपीएमसी समाप्त करने का निर्णय लिया। हालांकि शुरुआत में व्यापार में कुछ व्यवधान हुआ था, बाद में इससे कई निजी उद्यम संचालित विपणन मॉडल उभरे।

किसानों को एपीएमसी जाने के बजाए जैसा कि वे अन्य राज्यों में करते हैं, खेत से ही व्यापार होने लगा है। उदाहरण के लिए, पूर्णिया जिले में केले के खेती करने वाले किसान अपनी फसल सीधे व्यापारियों को बेचते हैं। व्यापारी उनके खेतों तक आते हैं जिससे परिवहन लागत और फसल की बर्बादी कम हो जाती है।तमिलनाडु की एक खाद्य प्रसंस्करण कंपनी ने हाल ही में बिहार के किसानों से सामूहिक रूप से 1 लाख टन मक्का खरीदा।किसानों ने फसलों में विविधता भी लाने की कोशिश की है और मखाना जैसी उपज भी ले रहे हैं जिसमें बिहार देश के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक बन गया है।
ठेका कृषि को सक्षम करने वाले नए अधिनियम के साथ, देशभर में किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के पुनर्जीवित होने की बातें शुरू हो गई हैं। एफपीओ सहकारी समितियों की तरह काम करते हैं।इसमें 100 से लेकर 1,000 तक किसान सदस्य होते हैं जो जमीन पर साझा खेती करके लागत घटा सकते हैं। देशभर में 5,000 से अधिक एफपीओ हैं, उनमें से ज्यादातर निष्क्रिय हैं। मोदी सरकार ने पांच वर्षों में एफपीओ की संख्या दोगुनी करके 10,000 तक पहुंचाने का वादा किया है और उन्हें आर्थिक सहायता देने के लिए 5,000 करोड़ रुपए निर्धारित किए हैं।

कुछ राज्यों में एफपीओ पहले से ही, काफी प्रभावी रहे हैं. नासिक में 2 करोड़ रुपए के प्रारंभिक निवेश और 500 किसानों की सदस्यता के साथ 2010 में गठित एफपीओ सह्याद्री फार्म्स (एसएफ), ने फलों और सब्जियों की खरीद से काम शुरू किया और फिर उसने खाद्य प्रसंस्करण में कदम रखते हुए विभिन्न फलों के रस, सॉस और जैम तैयार करना शुरू किया। इसके बाद एफपी

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