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पर्यावरण संरक्षण

सुखदेव वशिष्ठ

परमात्मा के द्वारा भूमि, जल, वायु, जीव-जंतु और वनस्पतियों के रूप में ब्राह्म पर्यावरण और आत्मा के रूप में आंतरिक पर्यावरण दोनो ही बनाए हुए हैं।भूमि, जल, वायु ,वनस्पति और जीव-जंतु के रूप में हमारे सामने उपस्थित प्राकृतिक जगत को, जो हमारे मनुष्य जीवन के चारों ओर विद्यमान है, पर्यावरण कहते हैं।

भारतीय चिन्तन परम्परा में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा कूट-कूट कर भरी पड़ी है। हमारे ऋषि-मुनि चूँकि प्रकृति के सम्पर्क में एवं संरक्षण में रहते थे, इसलिए प्रकृति के संरक्षण हेतु सभी विधानों का प्राविधान किया गया है।

प्राचीन काल में मानव जब प्रकृति के संरक्षण में रहता था और प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहता था, पर्यावरण प्रदूषण एवं पारिस्थितिकी असंतुलन संबंधी कोई भी समस्या नहीं थी। जैसे-जैसे मानव विकास की दौड़ में आगे बढ़ता गया, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एवं शोषण तीव्र गति से बढ़ता गया|

भारतीय चिन्तन परम्परा में जल को भी देवता मानते हुए नदियों को जीवनदायिनी कहकर सम्बोधित किय गया है।
भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को ही देवता स्वरूप माना है। ऊर्जा के अजस्र स्रोत सूर्य को देवता मानते हुए ‘‘सूर्य देवो भव’’ कहा गया है।

‘माता भूमिः पुत्रों अहं पृथिव्याः।’अर्थात भूमि हमारी माता है एवं हम पृथ्वी की संतान हैं। यह पृथ्वी हमें अपना पुत्र मानकर उसी तरह हमारी पालना करती है।

हमारे पुराणों में केवल पीपल के वृक्ष और वटवृक्ष का ही गुणगान नहीं किया है बल्कि अनेकानेक वृक्षों को लगाने और पूजा-अर्चना करने से मिलने वाले अमुल्य वरदानों की भी चर्चा की गई है|

महात्मा बुद्ध के शब्दों में
“हरे-भरे पेड़-पौधे न काटें, क्योंकि उनमें जीवन होता है। वे पशु-पक्षियों व मनुष्यों को दाना, अन्न, फल-फूल, दवाएं व प्राणवायु देते हैं व मानवता की मूक सेवा करते हैं।”
हम भगवान की पूजा करते हैं, भगवान में भ=भूमि, ग=गगन, व=वायु, अ=अग्नि, एवं न=नीर की अवधारणा छिपी हुई है। अर्थात् हमारे प्रकृति के मूल पांच तत्वों क्षितिज, जल, पावक, गगन एवं समीर की ही पूजा भगवान के रूप में करते हैं|

भगवान की पूजा के रूप में प्रकृति के मूलभूत पांच तत्वों की रक्षा के लिए एवं संरक्षण के लिए पूजा करते हैं। पर्यावरण संरक्षण के प्रति इतनी उत्कृष्ट संकल्पना हमें कहीं नहीं दिखायी पड़ती है।

12 जनवरी 1863 में नरेंद्र “विवेकानंद जी” ने शिकागो में भारतीय संस्कृति का डंका बजाया, वैसे ही वर्तमान में नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में पूरा विश्व भारतीय संस्कृति को अपना कर वर्तमान वैश्विक महामारी कोरोना से बचने का रास्ता ढूँढ़ रहा है। यह हमारे लिये गर्व का विषय है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 8,9 और 10 फरवरी की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन हेतु प्रस्ताव पास किया।उस के बाद से संघ की पर्यावरण गतिविधि देश भर में पर्यावरण संरक्षण का उत्कृष्ठ ईश्वरीय कार्य कर रही है। 30 अगस्त को भी पर्यावरण गतिविधि द्वारा हिंदू आध्यात्मिक एवं सेवा फाउंडेशन के सहयोग से प. पू. सर संघचालक डा.मोहन भागवत जी के मार्गदर्शन में हुए “प्रकृति वंदन “कार्यक्रम में उन्होने कहा कि” प्रकृति को जीतकर जीने का जो तरीका अभी बहुत मात्रा में प्रचलित है वो तरीका पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। ऐसे ही चला तो इस सृष्टि में जीने के लिये हम लोग नहीं बचेंगे या यह सृष्टि नहीं बचेगी।”

हम लोग स्वदेश धर्म और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये कटिबद्ध हैं।प्रकृति का नियम स्वार्थ नहीं सह अस्तितत्व है।अमर्यादित विकास, अधिकाधिक वस्तुओं का संग्रह आदि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के आधार तत्त्व अब टिक नहीं सकते। प्रकृति में मर्यादा है, इस लिये हम भी मर्यादा साधें और अपरिग्रह की तरफ बढ़ें।

प्रकृति हमें जीवन की सभी मूलभूत आवश्यकताएँ जैसे जल, खाद्य, स्वच्छ हवा, ऊर्जा एवं आवास प्रदान करती है। इसलिये हमें प्रकृति का बुद्धिमानी से इस्तेमाल करना चाहिए एवं इसकी सुरक्षा करनी चाहिए।

सुखदेव वशिष्ठ एक लेखक, चिंतक एवं विचारक हैं।

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